Book Title: Adhyatma Kalpdrumabhidhan
Author(s): Fatahchand Mahatma
Publisher: Fatahchand Shreelalji Mahatma

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Page 479
________________ सुभाषित ६ श्री कुंदकुंदाचार्य के प्रवचनसार में से अनुवादित अनेक प्रकार के सुखों को प्राप्त करने की इच्छा से बहुत पुण्य किए हों तो उनके प्रभाव से देव वर्ग तक के जीवों को (वे वे पदार्थ प्राप्त होते हैं तथा साथ ही साथ उन) विषयों के लिए तृष्णा खड़ी होती है। (१, ७४) जागी हुई तृष्णा वाले वे जीव, तृष्णा से दुःखी होकर, फिर विषय सुख की इच्छा करते हैं और मृत्यु तक तृष्णा के दुःख से संतप्त होकर उन सुखों का अनुभव करते रहते हैं। (१, ७५०, परन्तु इन्द्रियों से प्राप्त होता हुवा सुख दुःख रूप ही है, कारण कि इन्द्रिय जनित सुख सदा पराधीन, विघ्न युक्त, विनाशी, बंधन का कारण तथा अतृप्तिकर होता है । (१, ७६) शरीर तो कभी जीव को इस लोक में या देवलोक में सुख नहीं देता है; स्वयं को प्रिय या अप्रिय विषय ग्रहण कर आत्मा स्वयं ही सुख या दुःख के भाव में परिणमित होता (१, ६६) इन्द्रियों के आश्रित रहे हुए प्रिय विषयों के पाकर है।

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