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अध्यात्म-कल्पद्रुम जो परिग्रही है उसमें आसक्ति, आरंभ या असंयम क्यों न होंगे ? वैसे ही जब तक पर द्रव्य में आसक्ति है तब तक आत्मा का साधन किस तरह से हो सकता है ? (३, २१)
जिसकी प्रवृत्तियां जीव जन्तु के न मर जाने में प्रयत्नशील हैं; जिसके मन-वाणी-काया सुरक्षित हैं; जिसकी इन्द्रियां नियंत्रित हैं; जिसके विकार जीते गए हैं, जिसमें श्रद्धा और ज्ञान परिपूर्ण है तथा जो संयमो है वही श्रमण कहलाता है।
(३, ४०) सच्चा श्रमण शत्रु-मित्र में, सुख-दुख में, निंदा-प्रशंसा में मिट्टी के ढेले में और सोने में, तथा जीवन और मृत्यु में सम वुद्धि वाला होता है।
(३, ४१) श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र इन तीनों में जो एक ही साथ प्रयत्नशील है, तथा जो एकाग्र है, उसका श्रमणपना परिपूर्ण कहलाता है।
(३, ४२) जिसे पदार्थों में राग, द्वेष या मोह नहीं है, वही श्रमण विविध कर्मों का क्षय कर सकता है। (३, ४४)
जिसे इस लोक या परलोक में कोई आकांक्षा नहीं है, जिसके आहार विहार प्रमाणसर है, तथा जो क्रोधादि विकार से रहित है वही सच्चा श्रमण है।
(३, २६) __ आत्मा में पर द्रव्य की कुछ भी आकांक्षा न होना ही वास्तव में उपवास (तप) है। सच्चा श्रमण इसी तप की