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सुभाषित ४
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खड़ा रहना, प्रयत्नपूर्वक बैठना, प्रयत्नपूर्वक खाना और प्रयत्नपूर्वक बोलना; ऐसा करने से पाप कर्म नहीं बंधते हैं ।
(५-८) सब भूत प्राणियों को अपने समान गिनने वाले और देखने वाले तथा इन्द्रिय निग्रह पूर्वक हिंसादि पाप कर्म न करने वाले मनुष्य को पाप कर्म नहीं बंधता है। (५-९)
पहले ज्ञान बाद में दया, यह संयमी पुरुष की स्थिति है । जो अज्ञानी है वह क्या आचरण कर सकता है और भले रे को कैसे जान सकता है ?
(५-१०)
ज्ञानी से सुनकर पुण्य या पाप जाना जा सकता है। इन दोनों को ज्ञानी से जानकर, जो कल्याणकारी हो उसको प्राचरो ।
(५-११) सुख-आस्वादक, सुख को इच्छा वाले, आलसी (नींद लेने वाले.) तथा धो-मांज करते रहने वाले श्रमण को सुगति दुर्लभ है; परंतु तपोधन, सरल बुद्धि, क्षमावान, संयम में परायण तथा कठिनाइयों से न दबने वाले श्रमण को सुगति सुलभ है।
सभी जीना चाहते हैं, मरना नहीं चाहते, अतः निःग्रंथ घोर जीव हिंसा का त्याग करते हैं। (६, २-११)
इस लोक में सभी साधु पुरुषों ने असत्य वचन की निंदा