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सुभाषित ४
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सभी तीर्थंकरों ने यह हमेशा का तप कर्म बताया है कि निर्वाह जितना ही देह का पालन पोषण और दिन के अंदर अंदर ही (सूर्योदय से सूर्यास्त तक ) जीम लेना । (६, २ - ३ )
जब तक वृद्धावस्था की पीड़ा और इन्द्रियों की शक्ति मौजूद है, करने का प्रयत्न कर लेना चाहिए
नहीं है, रोग नहीं बढ़े हैं तबतक धर्म का श्राचरण ( ८-३६)
उच्छृंखल बने हुए क्रोध और मान तथा बढ़े हुए माया और लोभ ये चार मलिन वृत्तियें पुनर्जन्मरूपी को सींचने वाली हैं ।
क्रोध से प्रीति का नाश करता है, माया मित्रता का का नाश करता है ।
होता है, मान नाश करती है
वृक्ष के मूल ( ८-४० )
विनय का नाश और लोभ सर्व
(5-35)
शांति के द्वारा क्रोध को मारना चाहिए। मृदुता (नम्रता ) से मान को जीतना चाहिए, माया को ऋजुता ( सरलता ) से जीतना चाहिए और लोभ को संतोष से जीतना चाहिए । ( ८-३९)
इस लोक और परलोक के हित करने वाले धर्म का ज्ञान प्राप्त करने के लिए शास्त्रज्ञ गुरु की सेवा और विनय आत्मनिग्रह पूर्वक करनी चाहिए तथा उनको पदार्थों का निर्णय पूछना चाहिए । ( ८-४४)
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