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सुभाषित ३
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जानने में कुशल है, वह अहिंसा को जानने में कुशल है और जो अहिंसा को जानने में कुशल है, वह शब्दादि काम गुणों में रही हुई हिंसा को समझने में कुशल है । (३ - १०९ ) विषयों के स्वरूप को जो बराबर जानता है, वह संसार को वराबर जानता है और जो विषयों के स्वरूप को नहीं जानता है वह संसार के स्वरूप को भी नहीं जानता है । ( ५- १४३ )
मैंने सुना है और मुझे अनुभव है कि बंधन में से मुक्त होना तेरे ही हाथ में है । अतः ज्ञानियों के पास से समझ प्राप्त करके, हे परम चक्षु वाले पुरुष ! इसी का नाम ब्रह्मचर्य है ऐसा मैं कहता हूं |
तू पराक्रम कर ।
( ५ – १५० )
)
हे भाई ! तू अपने साथ (अपने अंदर युद्ध करने से क्या लाभ ? युद्ध के लिए इसके जैसी) वस्तु मिलनी दुर्लभ है ।
युद्ध कर, बाहर जैसी (आत्मा
(५ – १५३ )
हे भाई ! तू ही तेरा मित्र है; बाहर कहां है ? तू यदि अपने आपको ही वश में रखेगा तो से मुक्त हो सकेगा ।
(३,११७ -८ )
प्रमादी को सब तरह से भय है; अप्रमादी को किसी
प्रकार का भय नहीं है ।
(
मित्र ढूंढ़ता सब दुःखों
३ – १२३ )
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धर्म को ज्ञानी पुरुषों के पास से समझकर
या स्वीकार कर मात्र संग्रहित न कर रखना चाहिए परन्तु प्राप्त हुए भोग पदार्थों में भी वैराग्य पाकर, लोक प्रवाह के अनुसार चलना छोड़ देना चाहिए ।
( ४ – १२७ )