Book Title: Adhyatma Kalpdrumabhidhan
Author(s): Fatahchand Mahatma
Publisher: Fatahchand Shreelalji Mahatma

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Page 467
________________ ४२६ अध्यात्म-कल्पद्रुम हिंसा है । अतः बुद्धिमान ऐसा निश्चय करे कि, 'प्रमाद से जो कुछ मैंने पहले किया वह अब नहीं करूंगा” (१, ३४-६) जो मनुष्य विविध प्राणों की हिंसा में अपना ही अनिष्ट देख सकता है वही उसका त्याग करने में समर्थ हो सकता है। ___जो मनुष्य अपना दुःख जानता है वह दूसरों के दुःख को जान सकता है और जो दूसरों के दुःख को जानता है वह अपना दुःख भी जानता है। शांति को पाए हुए संयमी दूसरों की हिंसा करके जोना नहीं चाहते। (१, ५५-७) मनुष्य अन्य जीवों के विषय में बे परवाह न रहे । जो अन्य जीवों के लिए बे परवाह रहता है वह अपने लिए भी बे परवाह रहता है; तथा जो अपने लिए बेपरवाह रहता है वह अन्य जीवों के लिए भी बेपरवाह रहता है। (१-२२) हिंसा का मूल होने से काम गुण ही संसार के चक्र हैं। काम गुणों का दूसरा नाम ही संसार चक्र है। चारों तरफ अनेक प्रकार के रूप देखता हुवा और शब्द सुनता हुवा मनुष्य उन सब में आसक्त हो जाता है । इसी का नाम संसार है । ऐसा मनुष्य महापुरुषों के बताए हुए मार्ग पर नहीं चल सकता है; वरन बारबार काम गुणों का स्वाद लेता हुवा, हिंसादि वक्र (विपरीत) प्रवृत्तियां करता हुवा प्रमाद पूर्वक घर में मूर्छित रहता है। (१; ४०-४) जो मनुष्य शब्दादि काम गुणों में रही हुई हिंसा को

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