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मिथ्यात्वनिरोध-संवरोपदेश ३७५ में भटकती हुई इन्द्रियों को मन के द्वारा वश में करके जो इन्हें आत्मिक शुद्ध प्रवाह में लगा देते हैं वही सच्चे महात्मा हैं और वे ही स्तुत्य हैं।
कषाय संवर- करट
और उत्करट
कषायान् संवृणु प्राज्ञ, नरकं यदसंवरात् । महातपस्विनोप्यापुः, करटोत्करटादयः ।। १६ ।।
अर्थ-हे बुद्धिमान ! तू कषाय का संवर कर। उसका संवर न करने से करट और उत्करट जैसे महातपस्वी भो नरक को पाए हैं ॥ १६ ॥
अनुष्टुप
विवेचन हे विज्ञ ! तू क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों का संवर कर, ये कषाय ही संसार को बढ़ाने वाले हैं एवं संसार में बार बार जन्म लेते हुए भी तुझे कहीं भी सुख से नहीं रहने देते, स्वयं तुझे ही पद पद पर दुख देते हैं । जिनके मन में अधिक कषाय हैं वे उतने ही भयंकर सो के करंडियों को साथ लिए फिरते हैं। जैसे पूंगी बजी नहीं कि सांप फन फैलाकर बाहर निकला नहीं, वैसे हो प्रति दिन जब भी जरा सा संयोग क्रोध, मान, माया, लोभ का आया नहीं कि अंदर रहे हुए ये सांप बाहर निकले नहीं । अतः हे बुद्धिमान इन चारों सांपों को दूर जंगल में छोड़ आ और मन में जरा भी इनकी स्मृति न रहने दे । कुणाला नगरी में तपस्या करते हुए करट और उत्करट नामक दोनों मासियात भाई किले के नालदे में ध्यान कर रहे थे। बारिश