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सुभाषित संग्रह
४१५ का परिचय; उनकी इन्द्रियों का निरीक्षण उनका मीठा स्वर ( कूजित ), रुदन, गीत, हास्य सुनना; उनके साथ भोजन करना या बैठना, रसीली वस्तुओं का प्रास्वादन ; अधिक मात्रा में आहार; शरीर की शोभा और शब्दादि पाँच विषयों में आसक्ति ये आत्मान्वेषी ब्रह्मचारी के लिए तालपुट विष जैसे हैं । (इनका त्याग ही ब्रह्मचर्य की वाड़े हैं) । ( १६, ११–३)
जैसे बगुली, ( मादा बकपक्षी) अण्डे में से पैदा होती है और अण्डा बगली में से पैदा होता है वैसे ही मोह का उत्पत्ति स्थान तृष्णा है और तृष्णा का उत्तपत्ति स्थान मोह है ।
( ३-६ )
तृष्णां नहीं
जिसे मोह नहीं हैं उसका दुःख गया, जिसे है उसका मोह गया; जिसमें लोभ नहीं है उसकी तृष्णा गई और जिसका कुछ भी नहीं है उसको लोभ नहीं है । ( ३२ – ८ )
बुद्धिमान पुरुष क्रिया में रुचि रखता है और प्रक्रिया का त्याग करता है । श्रद्धालु पुरुष का कर्त्तव्य है कि श्रद्धानुसार कठिन धर्म का भी आचरण करे । (१८–३३)
जब किसी घर में आग लगती है, तब घर का मालिक उसमें से सार वस्तुएं ले लेता है और प्रसार वस्तुनों को छोड़ देता है; वैसे ही बुढ़ापे और मौत से सलगते हुए इस संसार में से मैं प्राप्त ( पूर्व पुरुषों) की आज्ञा से मेरे आत्मा को बचाना चाहता हूं ।
(१६, २२ – ३ )