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अध्यात्म-कल्पद्रुम हमारा आत्मा ही नरक की वैतरणी नदी है, यही कूट शाल्मली वृक्ष है, हमारा आत्मा ही स्वर्ग की कामदुग्धा धेनु है तथा नंदनवन है । दुःखों और सुखों का कर्ता और विकर्ता भी आत्मा ही है । अच्छे रास्ते पर जाने वाला आत्मा ही मित्र है और खराब रास्ते पर जाने वाला आत्मा ही शत्रु है ।
(२०, ३७–७) प्राणियों का वध करने वाला और कराने वाला कभी सब दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता है। इस सुन्दर धर्म के उपदेश देने वाले आर्य पुरुषों ने ऐसा कहा है। (८-८)
मात्र (सिर) मुंडाने से श्रमण नहीं बना जाता है, मात्र ओंकार से ब्राह्मण नहीं बना जाता है, मात्र जंगल में निवास करने से मुनि नहीं बना जाता है और मात्र दाभ के (घास के) वस्त्र से तपस्वी नहीं बना जाता है; परन्तु समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी बना जाता है । कर्म से ही मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होता है।
(२५, ३०.-३) ....... सब प्रकार के ज्ञान को निर्मल करने से, अज्ञान और मोह को त्यागने से तथा राग और द्वेष का क्षय करने से एकांतिक सुखरूप मोक्ष प्राप्त होता है। (३२-२) - मोक्ष-मार्ग-सद्गुरू और ज्ञानवृद्ध पुरुष की सेवा करना; अज्ञानियों की संगति दूर से ही छोड़ देना; एकाग्रचित्त से सत शास्त्रों का अभ्यास करना; उनके अर्थ का चिंतन करना और चित्त की स्वस्थता रूपी धृति को विकसित करना ।
(३२-३)