Book Title: Adhyatma Kalpdrumabhidhan
Author(s): Fatahchand Mahatma
Publisher: Fatahchand Shreelalji Mahatma

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Page 459
________________ ४१८ अध्यात्म-कल्पद्रुम मनुष्य चाहे बहुत शास्त्र पढ़ा हुवा हो, धार्मिक हो, ब्राह्मण हो या भिक्षुक हो; परन्तु यदि उसके कर्म अच्छे न हों तो वह दुःखी ही होगा। (२, १-७) कोई चाहे नग्नावस्था में विचरे या महीने के अंत में एक बार ही भोजन करे, परन्तु यदि वह मायायुक्त है तो वह बार बार गर्भवास ही पाएगा। (२, १-६) . हे मनुष्य ! पाप कर्म से निवृत्त हो। तेरा आयुष्य अल्प है। जगत के पदार्थों में प्रासक्त और काम भोगों में मूर्छित, असंयमी लोग मोह पाते ही रहते हैं। (२, १-१०) जीवन (आयुष्य) फिर जोड़ा नहीं जा सकता है, यह सुज्ञ पुरुष बार बार कहते हैं फिर भी मूर्ख मनुष्य धृष्टता पूर्वक पापों में मग्न रहा करते हैं। यह देखकर मुनि प्रमाद न करे। (२, २-२१) इस जगत के वंदन-पूजन को कीचड़ के खड्डे के समान जानना चाहिए। यह कांटा बहुत सूक्ष्म है और बहुत ही कठिनाई से निकाला जा सकने वाला है, अतः विद्वान को उसके समीप ही नहीं जाना चाहिए। (२, २-११) - जैसे दूर विदेश से व्यापारियों द्वारा लाए गए रत्नों को राजा ही धारण कर सकता है वैसे ही रात्रि-भोजन त्याग सहित महावतों को भी कोई विरला ही धारण कर सकता (२, ३-३)

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