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. सुभाषित २
- ४२१ में महावीर जैसे भी हों तो भी उनका सब पुरुषार्थ अशुद्ध है और उससे उनको बंधन ही होता है।
(८-२२) परन्तु जो पुरुष वस्तु का तत्त्व समझते हैं, वैसे ज्ञानी पुरुषों का धर्माचरण शुद्ध है और इसी से वे बंधते नहीं हैं।
(८-२३) ऊंचे कुल में जन्म लेकर जिन्होंने सन्यास लिया हो और जो महा तपस्वी हों, वैसों (मुनियों) का तप भी यदि कीर्ति को इच्छा से किया हुवा हो तो शुद्ध नहीं है। जिस तप को दूसरे नहीं जानते हैं वही सच्चा तप है। आत्म प्रशंसा कभी नहीं करना चाहिए।
(८-२४) __सुन्दर व्रत धारण करने वाले पुरुष को थोड़ा खाना चाहिए, थोड़ा पोना चाहिए और थोड़ा बोलना चाहिए; तथा क्षमायुक्त, निरातुर, जितेंन्द्रिय और कामना रहित होकर सदा (मोक्ष की तरफ) प्रयत्नशील रहना चाहिए। (८-२५)
प्राप्त हुए काम भोगों में भी इच्छा न होने देना ही इसका नाम विवेक। अपने प्राचार हमेशा सुज्ञ पुरुषों से सीखें।
(६-३२) मुमुक्षु, सदा प्रज्ञायुक्त, तपस्वी, पुरुषार्थी, आत्मज्ञान के इच्छुक, धृतिमान तथा जितेंद्रिय गुरु की सेवा सुश्रूषा करे।
(६-३३) शब्दादि विषयों में अलुब्ध रहे और निंदित कर्म न करे;