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सुभाषित २
श्री सूत्रकृतांग के छायानुवाद
महावीर स्वामीनो संयम धर्म में से अनुवादित
जब तक मनुष्य ( कंचन कामिनी आदि) सचित्त या अचित्त पदार्थों में आसक्त है तब तक वह उन दुःखों से मुक्त नहीं होता है ।
(१, १-२ )
जब तक मनुष्य हिंसा करता रहता है,
अपने
तब
सुख के लिए
तक वह वैर
अन्य प्राणियों की बढ़ाता रहता है ।
( १, १ - ३ )
ज्ञानी के ज्ञान का सार यह है कि वह नहीं करता है | अहिंसा का सिद्धांत भी
किसी की हिंसा इतना ही है ।
( १, ४ – १० )
जागो ! तुम समझते क्यों नहीं हो ? मृत्यु के पश्चात ज्ञान प्राप्त होना दुर्लभ है । बीती हुई रातें पीछी नहीं आती हैं और मनुष्य जन्म फिर से मिलना
आसान नहीं है । ( २, १ – १ )
जगत में प्राणी अपने कर्मों से ही दुःखी होते हैं और अच्छी-बुरी दशा प्राप्त करते हैं । किया हुवा दिये कभी अलग नहीं होता है ।
कर्म बिना फल ( २, १– ४ )
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