________________
शुभवृत्ति
३८१ नियमित समय व संख्या के अनुसार करता है जब कि साधु जीवन भर सामायिक में ही रहता है । इन आवश्यकों से सबको आत्मशांति मिलती है और मोक्षमार्ग पर स्थिरता रहती है, अपनो करणी का निरीक्षण किया जाता है व अयोग्य काम को छोड़ने व योग्य काम को आगे बढ़ाने की प्रेरणा मिलती है ये छः प्रतिदिन अवश्य करने चाहिए इनके बिना जीवन निरंकुश रहता है। इस श्लोक में सर्वज्ञ भगवान (प्राप्त) को वैद्य, आवश्यक क्रिया को औषध और भवपर्यटन को व्याधि की उपमा दी है।
तपस्या करनी चाहिए तपांसि तन्याद्विविधानि नित्यं, मुखे कटून्यायतिसुंदराणि । निध्नति तान्येव कुकर्मराशि रसायनानीव दुरामयान् यत् ॥२॥
अर्थ यद्यपि मुंह में डालते ही कटु लगने वाले परन्तु परिणाम से सुन्दर ऐसे दोनों प्रकार के तप हमेशा कर । क्योंकि वे कुकर्म के समूह का उसी प्रकार से तुरंत नाश करते हैं जैसे दुष्ट रोगों को रसायण (भस्म) नष्ट करता है ।। २ ॥
उपजाति विवेचन-छः बाह्य और छ: अभ्यंतर तप का वर्णन पहले आ चुका है उन तपों को कर जिससे तेरे पापों का नाश होगा यद्यपि उनके करते हुए मन नहीं मानता है, भूख सताती है परंतु परिणाम अति सुन्दर होगा अतः तू तपकर । जैसे असाध्य रोग को भस्म नष्ट करती है वैसे ही घाती कर्म तक को तपस्या नष्ट करती है।