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शुभवृत्ति
३८६ भावना आत्मलय मैत्री प्रमोदं करुणां च सम्यक्, मध्यस्थतां चानय साम्यमात्मन् । सद्भावनास्वात्मलयं प्रयत्नात्, कृताविरामं रमयस्व चेतः ।।८।।
अर्थ हे आत्मा ! मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थता को अच्छी तरह से भा (धारण कर) समता भाव प्रगट कर । प्रयत्न करके सद्भावना भाकर आत्मलय में विराम पाकर (अपने) मन को क्रीड़ा करा ।। ८.॥ उपजाति
विवेचन तू अपने हृदय में मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ इन चारों भावों को निरंतर धारण कर। इनमें आत्मरमण करने से परम शांति प्राप्त होती है। भावना भाते हुए शुद्ध समता का उदय होता है। समता आत्मिक गुण है और स्थिरता इसकी नींव है। मात्र ज्ञान, ध्यान, तप और शीलयुक्त मुनि की अपेक्षा समताधारी मुनि अधिक गुण निष्पादित कर सकता है इस प्रकार से जब प्रवृत्ति करते हुए समता प्राप्त होती है तब जीव आत्म जागृति करता है। उसे सांसारिक सभी काम तुच्छ प्रतीत होते हैं उसका मन आत्मप्रवृत्ति की तरफ दौड़ता है। उसे केवल आत्मप्रवृत्ति ही रुचिकर प्रतीत होती है। शुभ ध्यान द्वारा आत्मलय होता है और उस वक्त अनिर्वचनीय आत्मानंद होता है। आत्मरमण करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है और जब मन उस तरफ लगता है तब वाह्य वस्तु का भान नहीं रहता है । मन अंतर्मुख हुवा नहीं, कि ध्येय समीप आया समझो।