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अध्यात्म-कल्पद्रुम
मोह के योद्धाओं का पराजय
कुर्यान्न कुत्रापि ममत्वभावं, न च प्रभो रत्यरती कषायान् । इहापि सौख्यं लभसेऽप्यनीहो, ह्यनुत्तरामात्त्र्त्यसुखाभमात्मन् || ६ ||
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अर्थ – हे समर्थ आत्मा ! किसी भी वस्तु पर ममत्त्व भाव न रख, एवं रति अरति और कषाय भी न कर । जब तू इच्छा रहित हो जाएगा तब तो अनुत्तर विमान में बसने वाले देवों का सुख भी तुझे यहीं मिलेगा ।। ६ ।
इंद्रवज्रा
विवेचन – हे आत्मा तू अपने शरीर, स्त्री, पुत्र, धन आदि पर से ममता हटा ले, ये तेरे नहीं हैं और तू इनका नहीं है, इनका ममत्व इस लोक और परलोक में दुखदायी है; तू अच्छी और बुरी वस्तुओं में राग या द्वेष का विचार छोड़ दे अर्थात रति अरति न कर; संसार में घुमाने वाले कषाय को तू छोड़ दे, ऐसा करने से तुझे बहुत सुख मिलेगा । अनुत्तर विमान के देवों को सबसे अधिक सुख है कारण कि वहां स्वामी सेवकपन नहीं है एवं काम विकार से होने वाली शारीरिक या मानसिक विडंबना भी नहीं है परंतु निस्पृहता से होने वाला सुख इससे भी बढ़कर होता है उपाध्याजी ने कहा है
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परस्पृहा महादुःखं निस्पृहत्वं महासुखम् । एतदुक्तं समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ॥
आत्मा में अनंत ज्ञान है और अनंत दर्शन है । महावीर प्रभु जैसा बल, अभय कुमार जैसी बुद्धि, हेमचंद्राचार्य जैसा