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अध्यात्म-कल्पद्रुम मोक्षार्थी ! साधने योग्य कार्यों में यत्न कर और त्यागने योग्य कार्यों को छोड़ दे ॥ ६ ॥
उपजाति
विवेचन हे साधु ! तू आत्म निरीक्षण कर कि तूने जप, तप, उपदेश, धर्मोन्नति, संध संवृद्धि आदि कार्य किए हैं कि नहीं ? शरीर की ममता छोड़कर विशेष तप कितने किए हैं ? धर्मशास्त्रों का पठन, पाठन, लेखन कितना किया है ? धर्म विहीन क्षेत्र में विहार करके धर्म से पतित होते हुए कितने प्राणियों की रक्षा की है, एवं उन्हें फिर से धर्म में कितना प्रवृत्त किया है ? तेरे मन को कमजोरी या कदाग्रह का त्याग कितना किया है ? धर्म स्थानों, मंदिरों, उपाश्रयों या संघ के ऊपर आई हुई आपत्ति के निवारण के लिए त्याग या स्वार्पण कितना किया है ? क्या तेरे जैसे समृद्ध आचार्य या मुनि की उपस्थिति में धर्म स्थानों पर या संघ पर विकट संकट आने पर तू बलिदान के लिए तैयार हो सकता है ? क्या कालिकाचार्य जैसा पुरुषार्थ, तू गर्द भिल्ल जैसों के सामने करके धर्म की रक्षा कर सकता है ? हे मुनि ! इन सब बातों का विचार करके प्रतिदिन बढ़ते हुए निरर्थक प्रलापों का, अनावश्यक मानसिक उपाधियों का, संघ में होते हुए विटंबावाद का उपचार करता हुवा तू आत्माहित साध ले। क्योंकि तू मोक्षाभिलाषी है। मोक्षाभिलाषी के लिए आत्मनिरीक्षण आवश्यक है।
हे श्रावक ! क्या तू भी प्रतिदिन जप, तप, (द्रव्य या भाव से) पूजा, गुरुवंदन, प्रतिक्रमण या सार्मिक भक्ति करता