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अध्यात्म-कल्पद्रुम
अनुभव हो गया है वैसा समृद्धबुद्धि जीव कषाय से उत्पन्न हाने वाले दुर्विकल्पों का त्याग करे, यह तभी हो सकता है जब कि मन का पूरा संवर हो जाय । वास्तव में सुख और दुःख मन के साथ हैं । मन जिसमें सुख मान लेता है वह सुख बन जाता है और मन जिसको दुःख मान लेता है वह दुःख बन जाता है अतः मन को सुधारना नितांत आवश्यक है इसके सुधारे बिना कर्म को निर्जरा असंभव है अतः मन का संयम करना परम आवश्यक है ।
निःसंगता और संवर उपसंहार
तदेवमात्मा कृतसंवरः स्यात्, निसंगता भाक् सततं सुखेन । निःसंगभावादथ संवरस्तद्वयं शिवार्थी युगपद्भजेत् ॥ २२ ॥
अर्थ - जिसने उक्त प्रकार से संवर किया है ऐसा आत्मा बिना प्रयास से निःसंगता का भाजन होता है, एवं निःसंगता भाव से ही संवर होता है अतः मोक्ष का अभिलाषी जीव इन दोनों को साथ हो भजे ।। २२ ।।
उपजाति
विवेचन - जिसने मिथ्यात्व का त्याग किया हो, अविरति दूर की हो, कषाय को जीत लिए हों और योग का संधन ( नियंत्रण ) किया हो उसका स्वाभाविकतः ममत्व घटता जाता है । ममत्व घटा नहीं कि सांसारिक वासना का दृढ़ बंधन ढीला होना शुरू हुवा नहीं । वासना घटने से विषय के साथ एकाकार वृत्ति होती रुक जाती है । अंत में वासना भी नष्ट होती है और ममता भी नष्ट होती है, ये दोनों गईं कि मोह गया,