Book Title: Adhyatma Kalpdrumabhidhan
Author(s): Fatahchand Mahatma
Publisher: Fatahchand Shreelalji Mahatma

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Page 414
________________ मिथ्यात्वनिरोध - संवरोपदेश ३७३ के संयम को एक अलग श्लोक में वर्णित किया है यह इन्द्रिय अलग नहीं है, स्पर्शेन्द्रिय ही है परन्तु इसका संयम सबसे कठिन होने से सबसे अधिक महत्व का भी है । शास्त्रकारों ने कहा है कि सुगंध लेते हुए, सुस्वर सुनते हुए, रूप देखते हुए और उत्तम पदार्थ खाते हुए यदि आत्मस्वरूप विचारा जाय और पौद्गलिक भाव का त्याग किया जाय तो कदाचित् केवल ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है परन्तु स्त्री संयोग या पुरुष संयोग करते हुए तो आत्मा को केवल ज्ञान हो ही नहीं सकता है । एकान्त दुर्ध्यान, सात धातु की एकत्रता, महाक्लिष्ट अध्यवसाय होने पर ही स्त्री संयोग होता है । गुह्यं द्रिय का जबरदस्ती संयम – ब्रह्मचर्य पालन नहीं कहलाता है यों तो एकेंद्रिय से प्रसन्नि पंचेंद्रिय तक का जीव नपुंसक वेद में ही रहता है। कई पुरुष भी इच्छा से नपुंसक बनते हैं । नारकी के जीव तथा मनुष्यों द्वारा नपुंसक किए गए घोड़े या बैल भी तो जबरदस्ती से संयमी रहते हैं, इसका कोई महत्त्व नहीं है । महत्त्व व बलिहारी तो इसकी है कि एकांत हो, सुंदर स्त्री सम्मुख हो, वह स्वयं प्रार्थना भी करती हो, सब संयोग अनुकूल हों, धन व वैभव की कमी न हो उस वक्त संयम पाला जाय !! राजिमति, सुदर्शन सेठ व स्थूलभद्र को इसीलिए धन्य माना गया है । इसका संयम न रहने से रावण ने पूरी लंका का नाश कराया, इलाची कुमार ने घरबार, माता पिता का त्याग कर नट का कार्य स्वीकार किया, धवलं सेठ सातवीं मंजिल से गिरता हुवा अपनी ही कटारी से मारा गया । हाय ! शूरवीर मानव रण में लाखों योद्धाओं को

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