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अथ चतुर्दशो मिथ्यात्वादिनिरोधाधिकारः
तेरहवें अधिकार का मुख्य उद्देश्य साधु के लिए उपदेश का था । साधु प्रायः देशविरतिधर श्रावक वर्ग में से बनता है, उसे मन, वचन, काया के योग पर अंकुश, इंद्रियों का दमन और मिथ्यात्व आदि बंध हेतु का त्याग करने का उपदेश यहां दिया गया है । ग्रंथकर्ता इसके लिए लिखते हैं कि, " अथ सामान्यतो यतीन् विशेषतो धर्म गृहिणश्चाश्रित्य मिथ्यात्वादि संवरोपदेशः " अतः यह उपदेश यति के लिए सामान्य है और देश विरतिधर गृहस्थ को भी उद्देश में रखकर लिखा गया है । इसके अधिकारी को योग्य विवेचन नीचे मालूम पड़ेगा ।
बंध के हेतु का संवर कर
मिथ्यात्वयोगाविरतिप्रमादान्, श्रात्मन् सदा संवृणु सौख्यमिच्छन् । संवृता यद्भवतापमेते, सुसंवृता मुक्तिरमां च दद्युः ॥ १ ॥
अर्थ - हे चेतन ! यदि तू सुख की इच्छा रखता है तो मिथ्यात्व योग, अविरति और प्रमाद का संवर कर । यदि उनका संवर न किया जाय तो वे संसार का संताप देते हैं,