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मिथ्यात्वनिरोध-संवरोपदेश
अर्थ-मात्र चक्षु के संयम से कौन रूप अवलोकन नहीं त्यागते ? परन्तु इष्ट और अनिष्ट रूपों में जो रागद्वेष छोड़ देते हैं वही सच्चे मुनि हैं ॥ १३ ॥
अनुष्टुप विवेचन तेइन्द्रिय तक के सब जीव नेत्र रहित होते हैं एवं पंचेंन्द्रिय मनुष्य और तिर्यंच में भी कितने हो अंधे होते हैं परन्तु इस प्रकार के संयम से लाभ क्या ? अथवा अांखें मीच कर बैठे रहने से भी लाभ क्या ? परन्तु वास्तविक संयम तो वह है जब कि सुंदर स्त्री सामने होते हुए भी उसके अंगोपांग न देखें, तथा रोगी, कुष्ट व विकृत शरीर को देखते हुए भी घृणा न करें। कभी कभी ऐसा भी होता है कि गुरुजन या बड़ों के विनय से हम इच्छित वस्तु नहीं देख पाते हैं परन्तु मन तो वहीं जाता है ऐसा चक्षु संयम भी निरर्थक है। सच्चा चक्षु संवर तो यह है जैसा कि इन्द्रिय पराजय शतक में भी लिखा है, "उन्हीं पुरुषों को धन्य है, उन्हीं को हम नमस्कार करते हैं और उन्हीं संयमी के हम दास हैं जिनके हृदय में विकारी नेत्र से देखने वालो स्त्री नहीं खटकती हैं। इसी असंयम से पतंगिए दीपक में आकर गिरते हैं व मरते हैं ।
घ्राणेन्द्रिय संवर
घाणसंयममात्रेण, गंधान कान् के त्यजन्ति न । इष्टानिष्टेषु चैतेषु रागद्वेषौ त्यजन्मुनिः ॥ १४ ॥
अर्थ-नासिका के संयम मात्र से कौन गंध को नहीं ४५