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३६२ - अध्यात्म-कल्पद्रुम मन पर नियंत्रण न होने से वह अस्तव्यस्त होकर झोंका खाता रहता है अतः उस पर अंकुश रखकर आर्त रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म-शुक्ल ध्यान ध्याना चाहिए।
वचन अप्रवृत्ति-निरवद्य वचन वचोऽप्रवृत्तिमात्रेण, मौनं के के न विभ्रति । निरवद्य वचो येषां, वचोगुप्तांस्तु तान् स्तुवे ॥ ६ ॥
अर्थ वचन की अप्रवृत्ति मात्र से कौन कौन मौन धारण नहीं करते हैं ? परन्तु हम तो उनकी प्रशंसा करते हैं जो वचन गुप्ति वाले प्राणी निरवद्य वचन बोलते हैं ॥ ६ ॥
_ अनुष्टुप विवेचन कई कारणों से वचन की प्रवृत्ति होती ही नहीं है अर्थात बोला ही नहीं जाता है। एकेंद्रिय वाले प्राणियों (पृथ्वी, जल हवा, अग्नि, वनस्पति के जीव) के तो जीभ होती ही नहीं है। दो इन्द्रिय से पंचेंद्रिय तक के तिर्यंच प्राणी (पशु-पक्षी) स्पष्ट नहीं बोल सकते हैं। कई मनुष्य भी रोग, क्षोभ, अथा गूंगेपन से नहीं बोल सकते हैं अतः बलात मौन रहते हैं, परन्तु ऐसे मौन से कुछ भी लाभ नहीं होता है । बोलने की शक्ति होते हुए भी निरवद्य (निष्पाप) वचन बोलने में ही खूबी है। वचन गुप्ति धारण की हो, भाषा पर अंकुश हो और बोले तंब सत्य प्रिय, मित् और पथ्य वचन ही बोले वही निरवद्य वचन कहलाता है, जैसे कि अशक्त होने पर साधु होना कोई आश्चर्य नहीं है। शक्ति होते हुए