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मिथ्यात्वनिरोध-संवरोपदेश
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तत्व के लिए शंका करना सांशयिक मिथ्यात्व है. उसके स्वरूप के लिए शंका करना शंका है । उसे जानने की इच्छा और उसके कार्यभूत होने वाला प्रश्न प्राशंका कहलाता है ।
एकेंद्रिय जीव को मिथ्यात्व होता है ।
( ५ ) श्रनाभोगिक - विचार शून्य अथवा विशेष ज्ञान रहित जीवों को यह
जो जो कर्मबंध होता है उसके उदय समय प्राप्त होने
पर उसको भुगतना पड़ता है । इस बंध के हेतु चार हैं, मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग । इसके ५७ भेद हैं । इन सत्तावन बंध हेतुत्रों को समझने की पूरी आवश्यकता है । इन चार हेतुत्रों में से मिथ्यात्व के पांच भेद ऊपर कहे जा चुके हैं अब अन्य तीन हेतुओं को कहते हैं ।
बारह अविरति - पांच इन्द्रिय और मन का संवर न करना तथा छ: काय जीवों का वध करना यह बारह प्रकार की अविरति कर्मबंध के हेतुभूत है ।
इस पर विषय
मान, माया,
उत्कृष्ट पंद्रह
कषाय-संसार का लाभ । इसके २५ भेद हैं। कषाय द्वार में पर्याप्त लिखा गया है । क्रोध, लोभ, इनमें से प्रत्येक के चार चार भेद हैं । दिन तक रहे और देव गति प्राप्त करावे वह 'संज्वलन' | उत्कृष्ट चार मास तक रहे और मनुष्य गति प्राप्त करावे बह 'प्रत्याख्यानावरण' । उत्कृष्ण एक वर्ष तक रहे और तिर्यंचगति प्राप्त करावे वह अप्रत्याख्यानी और उत्कृष्ट जीवन पर्यंत रहे और नरकगति प्राप्त करावे वह 'अनंतानुबंधी' । यह अनुक्रम से यथाख्यात चारित्र, सर्व विरति देश विरति
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