________________
३४४
अध्यात्म- कल्पद्रुम
मात्र कण्ठस्थ किए गए श्राचारांग, सूत्र कृलांग श्रादि शास्त्रों में ही है । यदि कोई दुर्गति में से बचाने बाला है तो वह केवल मात्र संयम ही है । इस जीव को पुद्गल या अन्य जीव सहायक नहीं हो सकते हैं, यह अकेला ही है, अकेला ही अपने अच्छे बुरे कर्मों का फल भोगने वाला है अतः ऐसे आलंबनों को ढूंढने का अवसर ही न दे । सदा संयम गुण में लगा रह और आत्मा को अनंत दुःख राशि में से गिरने से बचा ।
संयम से सुख, प्रमाद से उसका नाश यस्य क्षणोपि सुरधामसुखानि पल्यकोटीनृणां द्विनवतों ह्यधिकां ददाति । कि हारयस्यधम संयमजीवितं तत, हाहा प्रमत्त पुनरस्य कुतस्तवाप्तिः ॥ ५६ ॥
अर्थ - जिस ( संयम) की एक क्षण ( मुहूर्त) भी बानवे कोड़ पल्योपम से अधिक समय तक देव लोक का सुख देती है ऐसे संयम जीवन को हे अधम ! तू क्यों हे प्रमादी ! दुबारा फिर से तुझे इस संयम कहां से होंगी ? ।। ५६ ॥
हार रहा है ?
की प्राप्ति भी
वसंततिलका
विवेचन – टीकाकार धन विजयजी गणी लिखते हैं कि, "संयम जीवन का एक क्षण भी मनुष्य को बानवे क्रोड़ पल्योपम से अधिक समय तक का देवलोक का सुख देता है ।
"सामायिक करता हुआ श्रावक दो घड़ी ( ४८ मिनिट )