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यतिशिक्षा
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ज्ञान प्राप्त हुआ, तुझे अपने और अपने परिवार के भरण पोषण की चिंता नहीं रही, विवाह शादी, काज कीरियावर करने की व मकान बंधाने, जेवर घड़ाने या दुकान पर तरह तरह के परिश्रम करके धन कमाने की चिंता भी नहीं रही अर्थात् तू हर प्रकार से निश्चिन्त है और फिर भी तुझसे धर्म में प्रवृत्त क्यों नहीं हुअा जाता है ? प्रमाद के वश में होकर तू यह भव व परभव क्यों बिगाड़ रहा है ?
संवम की विराधना नहीं करना
विराधितैः संयमसर्वयोगः, पतिष्यतस्ते भवदुःखराशौ । शास्त्राणि शिष्योपधिपुस्तकाद्या,
भक्ताश्च लोकाः शरणाय नालम् ॥ ५५ ॥ अर्थ संयम के सर्व योगों की विराधना करने से तू जब भव दुःख के समूह में गिरेगा तब शास्त्र शिष्य, उपधि, पुस्तकें और भक्त लोग आदि कोई भी तुझे शरण देने में समर्थ नहीं हो सकेंगे ॥ ५५ ॥
उपजाति ववेचन हे साधु ! संयम की आराधना ही तेरा मुख्य कर्तव्य है। इसकी विराधना के अनेक दुष्परिणाम हैं जिनमें से दो तो अनिवार्य हैं। एक तो दुर्गति गमन दूसरा अनंत भव भ्रमण । दुर्गति में पड़ने से रोकने की शक्ति न तो तेरी पुस्तकों से भरी अलमारी में है न शिष्य की पलटन में है न तेरे अपने कहलाने वाले दृष्टि रागी भक्तों में है न ही