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अध्यात्म-कल्पद्रुम
तात्विक हित करने वाली वस्तु कुलं न जातिः पितरौ गणौ वा, विद्या च बंधुः स्वगुरुर्धनं वा । हिताय जंतोर्न परं च किंचित्, कित्वादृताः सद्गुरुदेवधर्माः ।। __ अर्थ—कुल, जाति, माता पिता, गण, विद्या, सगे संबंधी, कुलगुरु धन या अन्य कोई भी वस्तु इस प्राणी को हितकारी नहीं होती हैं, परन्तु आराधन किये हुए शुद्ध देव, गुरु और धर्म ही हितकर होते हैं ॥ ६ ॥
उपजाति विवेचन—चर्ल चित्तं, चलं वित्तं, चलं जीवित योवने,
चलाचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलाः ।। हे मोह में पड़े हुए जीव ! तेरा भला करने वाली कोई वस्तु नहीं है, मात्र निस्वार्थी, परम उपकारी गुरु द्वारा उपदिष्ट धर्म सद् देव ही हितकारी हैं । प्रतिदिन के संसर्ग से तू कुटुंब में या धनादि पुद्गल मैं लुब्ध है ओर आराम की सांस लेता है, नोटों को गिनता है, गहनों को उथलपाथल करता है, बैंक की पास बुक में बैलेंस (जमा पूंजी) देखकर प्रसन्न होता है परन्तु हे भीले तुझे यह नहीं भूलना चाहिए कि ये सब तो कुछ काल बाद पराए हो जाने वाले हैं प्रांख मींचते ही इन पर दूसरों का अधिकार हो जायगा अतः इनमें से मन को हटाकर शुद्ध देव, गुरु और धर्म की आराधना कर, ये ही तेरे हितैषी हैं।
जो धर्म में प्रवृत्त करते हैं वे ही सच्चे माता पिता है माता पिता स्वः सुगुरुश्च तत्त्वात्प्रबोध्य यो योजति शुद्धधर्मे । न तत्समोऽरिः क्षिपते भवाब्धौ, यो धर्मविघ्नादिकृतेश्च जीवम् १०