________________
२७२
अध्यात्म-कल्पद्रुम
व यौवन का ह्रास ही हुवा जैसे कि पशुओं को होता है । क्योंकि पशु, माता का कुछ भी उपकार नहीं करते हैं ।
देव संघादि कार्य में द्रव्य व्यय न देवकार्ये न च संघकार्ये, येषां धनं नश्वरमाशु तेषाम् । तदर्जनाद्य व जिनैर्भवांधी, पतिष्यतां कि त्ववलंबनं स्यात् ॥१७॥
अर्थ-धन या पैसा एक दम नाशवान है । ऐसा धन जिनके पास हो यदि वे उसको देवकार्य में या संघ कार्य में न खर्च करें तो उनको उस धन के कमाने में किए गए पापों से संसार समुद्र में गिरते गिरते अाधार किसका होगा ? ॥१॥
उपजाति विवेचन-धन के लिए अनेक पाप करने पड़ते हैं। प्रायः झूठ, धोखा व हिंसा इसका मुख्य आधार होता है, फिर भी धन टिकता नहीं है, पापोदय से नष्ट हो ही जाता है। ऐसा धन का संग्रह या आवक जिसके पास हो वह देव, गुरु धर्म के लिए या संघ के लिए उसका खर्च नहीं करता है तो किए गए पापों के परिणाम से संसार समुद्र में गिरने से उसे कौन बचा सकेगा ? जैसे समुद्र में गिरने वाले को लकड़ी की नाव या पाटिए का आधार होता है वैसे ही नरक आदि के दुःख से या संसार समुद्र से बचने के लिए जीव को धर्म की नाव या पाटिया का सहारा होता है। धन का उपयोग सार्वजनिक लाभ के लिए या जिन मंदिर, जिनमूर्ति या जीर्णोधार आदि कराने में या गुरुकुल, पाठशाला, ज्ञानशाला, दानशाला, गौशाला आदि खोलकर या साधारण वर्ग के भाई बहिनों के लिए