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यतिशिक्षा
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में भी सावद्य की वांछा करता है तो क्या सोने की छुरी भी पेट में मारने से क्षण में प्राण नाश नहीं कर देती है ? ॥ ४६ ॥ उपजाति
विवेचन – संघ के कामों (प्रतिष्ठा, उपधान आदि) में भी यदि तू अपना यश बढ़ाना चाहता है या मूर्ति पर अपना नाम खुदवाने की भावना से उपदेश देता है तो वह भी ममत्त्व या महत्त्व बढ़ाने का कारण होने से आत्मघातक हैं । ऐसे भावों से प्रशस्त या अप्रशस्त कार्य भी हानिकारक हैं । छुरी चाहे लोहे की हो चाहे सोने की, पेट में मारने से अवश्य प्राणघात करती है । यहाँ छुरी की उपमा ममत्व और महत्वता से, पेट को आत्मपरिणिति से और प्राण को चारित्र जीवन से दी है ।
पुण्यहीन की चेष्टा, उद्धत बर्ताव - अधम फल रंकः कोऽपि जनाभिभूतिपदवी त्यक्तवा प्रसादाद्गुरोर्वेषं प्राप्ययतेः कथंचन कियच्छास्त्रं पदं कोऽपि च । मौखर्यादिवशीकृतर्जु जनतादामार्चनैर्गर्वभाग्श्रात्मानं गणयन्नरेंद्रमिव धिग्गंता द्रुतं दुर्गतौ ॥ ५० ॥
अर्थ – कोई दीन हीन मनुष्य लोगों से अपमानित होने के स्थान को छोड़कर गुरू महाराज की कृपा से मुनि का वेष पाता है, थोड़ा सा शास्त्र अभ्यास भी करता है और कोई पदवी भी पाता है तब अपने वाचालपन से भद्रिक लोगों को वशीभूत करके उन रागी लोगों से दिए गए दान और सम्मान वह गर्व मानता है और अपने आप को राजा समान मिनता
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