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यतिशिक्षा
३३५ गृहस्थ की चिंता का फल त्यक्त्वा गृहं स्वं परगेहचिंतातप्तस्य को नाम गुणस्तवर्षे । आजीविकास्ते यतिवेषतोऽत्र, सुदुर्गतिः प्रेत्य तु दुनिवारा ॥४७॥
अर्थ-अपना घर छोड़कर दूसरे के घर की चिंता से संतप्त हे ऋषि ! तुझे क्या लाभ होने वाला है ? (अधिक से अधिक तो) यति के वेष से इस भव में तेरी आजीविका सुख से चलेगी परंतु (इस वेष से) परभव में अत्यंत नेष्ट दुर्गति नहीं रोकी जा सकेगी ॥ ४७ ॥
उपजाति विवेचन-जिस ध्येय को (मोक्ष को) सामने रखकर तुने यह वेश धारण किया है और अपने घर की चिता से मुक्त हुवा है तो फिर दूसरों के घर की चिंता क्यों करता है इससे तेरी हानि होगी। इस वेष से इस भव में चाहे तुझे खान, पान, मान अधिक मात्रा में मिलते हों परन्तु पर भव में दुर्गति को रोकने में यह तेरा सहायक न होगा । अतः गृहस्थ की चिंता को छोड़कर आत्मचिंतन कर ।
तेरी प्रतिज्ञा से विपरीत तेरी चलन कुर्वे न सावधमिति प्रतिज्ञां, वदन्नकुर्वन्नपि देहमात्रात् । शय्यादिकृत्येषु नुदन् गृहस्थान् हृदा गिरा बासि कथं मुमुक्षुः ४८ - अर्थ-"मैं सावद्य नहीं करूंगा" ऐसी प्रतिज्ञा का तू प्रतिदिन उच्चारण करता है फिर भी सिर्फ शरीर से ही तू सावद्य