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यतिशिक्षा
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फूलता है कि मेरा प्रभाव कैसा है, मैं कितने बड़े व ऊंचे पद पर हूं, मेरे में इस कैदी को पकड़ने की, शक्ति है, यह उसकी मूर्खता है क्योंकि यह प्रभाव तो सरकारी पोशाक का है । वैसा हो भोलापन उस मुनि की भी है । उसको नमस्कार नहीं है वरन जैन साधु के वेश को नमस्कार है, उसकी शोभा या उसका प्रभाव नहीं है यह तो जैन शासन की शोभाव प्रभाव है अतः पौद्गलिक फल की इच्छा रखे बिना शुद्ध अध्यवसाय से धर्म क्रिया करना चाहिए। अभिमान से तो यह जीव क्रिया करता है और कष्ट भी उठाता है और प्राणांत उपसर्ग भी सहता है परंतु भाव शुद्ध न होने से वैसी फल प्राप्ति नहीं होती जैसी कि होनी चाहिए ।
आज देखा जाता है कि उपधान करके माला पहनते वक्त झगड़ा होता है, पहली माला कौन पहने इसके लिए क्लेश होता है आपस में लड़ते झगड़ते हैं । आचार्यों के समक्ष ही बोलाचाली व अपमानसूचक शब्द बोले जाते हैं। अभिमान व दिखावे की भावना नाश हुए बिना हमारी इन क्रियाओं का कोई महत्त्व नहीं है। तप या क्रियाएं करने के बाद ऐसा करना (अपनी महिमा बढ़ाना या लोक दिखावा करना) आत्मवंचना है व कृत पुण्य को नष्ट करना है अतः अभिमान को छोड़कर प्रत्येक क्रिया करना या कराना चाहिए इसी में आत्म कल्याण है। जो पहले दीन हीन दशा में थे अब साधु के ऊंचे पद पर हैं उन्हें अपनी उस दशा का भान रखकर निराभिमानी रहना चाहिए। भोले जीवों को उन्मार्ग के