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यतिशिक्षा
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विवेचन कोई संसार से संतप्त व्यक्ति स्मशान वैराग्य से दीक्षित होकर यति या साधु का वेष धारण कर लेता है और क्षणिक वैराग्य के लुप्त होने पर मनमाने आचरण करता है । भोले जीवों को धोखे में डालने वाला उसका वह वेष अनेक अनाचारों पर परदा डालता है। उसकी जीभ नित्य नए पदार्थों के लिए लालायित रहती है, उसकी आंखें उसके सम्पर्क में आने वाली रूप सुन्दरियों के अंगों में फिरती हैं उसका परिग्रह बढ़ जाता है अतः मोह बढ़ जाता है इस तरह से बिना वैराग्य के धारण किया हुवा उसका वेष उसकी लालसाओं की पूर्ति का साधन बन जाता है, व क्रमशः उसके पतन का कारण बनता है । वह ढोंगी नीचे उतरता उतरता शील भ्रष्ट हो जाता है और अपने उस वेष द्वारा उपाजित देवद्रव्य या ज्ञानद्रव्य के आड़ में किये गए कुत्सित धन के संचय से भावी जीवन का निर्वाह चलाता है।
कोई कोई साधु तो जरा भी तप नहीं करते हैं । वे उपसर्ग और परिषह से डरते हैं और चारित्र में दृढ़ नहीं रहते हैं, जब वे अपनी छुपी पापलीला को समाप्त कर मृत्यु को पाते हैं तब उनके उस वेष से मृत्यु देवी लिहाज नहीं रखती है, उनके लिए नरक प्रतीक्षा करते रहते हैं। मृत्यु व नरक उनके वेष से ठगे नहीं जायेंगे। कई विरले महापुरुष उन नरक व मृत्यु को भी सच्चरित्र द्वारा जीत लेते हैं अतः वेष के साथ बरताव भी वैसा ही रखकर स्वपर का कल्याण करें।
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