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यतिशिक्षा
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गए हैं। कितने ही पेटु दुष्ट, व कपट व्यवहारी केवल यति का भेष पहन कर प्रोघा मुंह पत्ति रखते हुए, पैरों में चप्पल सिर पर बालों की पट्टियों में सुगंधित तेल, कानों में इत्र के फोये, घर में पाशवानें ( रखेल स्त्रिएं ) जंगल में खेत कुएं, बाजारों में दुकानें व कारखाने रखते हैं वैसे नीच कुकर्मियों को धिक्कार है । वे लोग स्वयं भी अधोगति में जाते हैं व अपने यति के वेश के द्वारा धर्म को बदनाम करते हैं, उनको दान देने वालों को भी वे नरक में ले जाते हैं । पहले तो ऐसे कुकर्म मात्र कुछ लोग ही करते थे अब तो अधिक संख्या में ऐसा करते देखें, सुने व पढ़े जाते हैं । साधु वर्ग के एक स्थान पर जमे रहने से, बंगला फैशन उपासरों में पड़े रहने से व जिह्वा के वशीभूत होकर सरस भोजन करने के ये दुष्परिणाम हैं । साधु लोग गुजरात के खान पान को छोड़कर अन्यत्र कम जाते हैं अतः दुष्परिणाम प्रत्यक्ष है ।
ज्ञानी भी प्रमाद के वश हो जाते हैं—इसके दो कारण शास्त्रज्ञोऽपि धृतवृतोपि गृहिणीपुत्रादिबंधोज्झितोऽव्यंगी यद्यतते प्रमादवशगो न प्रेत्यसौख्यश्रिये । तन्मोहद्विषत स्त्रिलोकजयिनः काचित्परा दुष्टता, बद्धायुष्कतया स वा नरपशुर्नूनं गमी दुर्गतौ ॥ १० ॥
अर्थशास्त्र का जानकार हो, व्रत ग्रहण किए हुए हों, तथा स्त्री पुत्र आदि बंधन से मुक्त हो फिर भी प्रमाद के वंश होकर पारलौकिक सुखरूप लक्ष्मी के लिए यह प्राणी
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