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यतिशिक्षा
धर्मोपकरण पर मूर्छा भी परिग्रह है येऽहः कषायकलिकर्मनिबंधभाजनं, स्युः पुस्तकादिभिरपोहितधर्मसाधनैः । तेषां रसायनवरैरपि सर्पदामयरार्तात्मनां गदहृतेः सुखकृत्तु किं भवेत् ॥ २६ ।।
अर्थ--जिनके द्वारा धर्म साधने की अभिलाषा रखी हो वैसे पुस्तकादि द्वारा भी जो प्राणी पाप, कषाय, क्लेश और कर्म बंध करते हों वैसी दशा में उनके लिए सुख का साधन क्या हो सकता है ? जिस प्राणी की व्याधियां उत्तम प्रकार के रसायनों के सेवन से अधिक बढ़ती जाती हों उसके लिए व्याधियों की शांति का उपाय क्या हो सकता है ? ॥ २६ ॥
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मृदंग
- विवेचन–महावोर जिनेश्वर के मोक्ष के पश्चात् गणधर भी मोक्ष पहुंचे। उनके पीछे उनकी वाणी का संग्रह प्रागम ग्रन्थों में किया गया है अतः अब तो उन्हीं का आधार है । ऐसे धार्मिक पुस्तकों से (आगमों से ) संसार तैरा जा सकता है । वैसे पुस्तकों का अनावश्यक संग्रह जिसे संभाला ही नहीं जाता उसमें उदई दीमक लिया आदि जीव पड़ जाते हैं व मरते हैं । अरे नाम के मोह में मुर्छागत प्राणी ! तू धर्म के साधन से भी जीव हिंसा रूप पाप बढ़ा कर संसार बढ़ा रहा है भवकूप में डूब रहा है । तेरे नाम से खुलवाए गए ज्ञान भंडार क्या तूने कभी संभाले हैं ? उनकी तरफ तेरा कितना समय बीतता है ?