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अध्यात्म-कल्पद्रुम अर्थ-जो प्राणीदान, मान, (सत्कार) स्तुति और नमस्कार से प्रसन्न नहीं हो जाता है और उनसे विपरीत (असत्कार, निंदा) से अप्रसन्न नहीं होता है और अलाभ आदि परीषहों को सहन करता है वह परमार्थी यति है, बाकी दूसरे तो वेशविडंबक हैं।
इंन्द्रवंशा
विवेचन-जिसका मन अपने काबू में हो और स्तुति या निंदा में खुश या नाराज़ न होता हो तथा आए हुए परीषहों को बिना खेद से सहता हो वही वास्तव में सच्चा यति है बाकी तो वेश की विडंबना करने वाले वेशधारी नट जैसे हैं। ऐसे वेशधारी, अपने उपकरणों को भिन्न भिन्न रूप व विधि से धारण करके, समेट करके या कुछ भिन्नता लाकर अपना अलग ही सांग रचते हैं, न तो वे सिद्धांत को जानते हैं न अपना या दूसरों का भला ही कर सकते हैं। इस पंचम काल में ऐसे वेशधारी दिन प्रतिदिन बढ़ते व पुजाते जा रहे हैं, काल का प्रभाव है। वे अनपढ़ लोगों के आदर सत्कार व वंदन पूजन योग्य व अराध्यदेव तक बन रहे हैं । कर्मों के वशोभूत प्राणी सच्चे देवगुरु धर्म को न पहचान कर ऐसों के फेर में पड़कर अपनी भव परंपरा को बढ़ा रहे हैं यही तो कर्म गति है । जीवों को पूर्वभव में ज्ञान नहीं मिला इसीलिए तो गुरु को पहचान नहीं है, जब गुरु की पहचान नहीं है अतः ऐसे वेशधारी के फंदे में पड़े हैं अब तरने का रास्ता कहां रहा आश्चर्य है । ऐसे, वेषधारी, जो धर्म को बदनाम करके स्व पर का अहित करते हैं उनसे सावधान रहना चाहिए।