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अध्यात्म-कल्पद्रुम
धर्मोपकरण पर मूर्छा से दोष
रक्षार्थं खलु संयमस्य गरिता येऽर्था यतिनां जिनैसः पुस्तकपात्रकप्रभृतयो धर्मोपकृत्यात्मकाः । मूर्छन्मोहवशात्त एव कुधियां संसारपाताय धिक् स्वं स्वस्यैव वधाय शस्त्रमधियां यत्दुः प्रयुक्तं भवेत् ||२७||
अर्थ – वस्त्र, पुस्तक और पात्र आदि धार्मिक उपकरण की वस्तुएं श्री तीर्थंकर भगवान ने संयम की रक्षा के लिए यतियों को बताई हैं फिर भी मंद बुद्धि-मूढ़ जीव मोह में पड़कर उनको संसार में गिरने के साधन बनाते हैं, उनको धिक्कार है । मूर्ख मनुष्य के द्वारा अकुशलता से काम में लिया गया शस्त्र उसके स्वयं के ही नाश का कारण बनता है ||२७|| शार्दूलविक्रीडित
विवेचन – जैसे मूढ़ मनुष्य या बालक के हाथ में रहा हुवा शस्त्र (चाकू छुरी तलवार आदि ) उसी की उंगलियों को काटता है । जैसे अनजान आदमी भरी बंदूक का कुंदा अपनी तरफ करके दुश्मन को मारने के लिए घोड़ा दबाता है परंतु वह स्वयं अपने ही हाथों से गोली का शिकार होता है ठीक उसी तरह से मुनि, तू भी जिनोपदिष्ट निश्चित उपधि के अतिरिक्त वस्तुएं रखकर स्वयं का ही घात कर रहा है । ये वस्तुएं तुझे संसार में डुबाने वाली हैं अत: उनको तज दे धर्मोपकरण को दूसरों से उठवाने में दोष
संयमोपकरणच्छलात्परान्भारयन् यदसि पुस्तकादिभिः । गोखरोष्ट्रमहिष विरूपभृत्तच्चिरं त्वमपि भारयिष्यसे ॥ २८ ॥
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