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यतिशिक्षा
૨૨૭ ३. संसार संसार समुद्र में से कब निकलूं, संसार की जंजीर से कब छूटूं यह विचारना ।
४. एकत्व-यह जीव अकेला पाया है, अकेला जाएगा, इसका कोई नहीं है न यह किसी का है।
५. अन्यत्व हे जीव ! तू किसी का नहीं है ये सब जड़ व चेतन पदार्थ तेरे नहीं हैं तू सबसे भिन्न है।
६. अशुचि-यह शरीर मलमूत्र का धाम है, रोग, जरा का स्थान है, मांस, रुधिर हड्डो आदि अपवित्र वस्तुओं से बना हुवा है मैं इससे अलग हूं इसकी अपवित्रता को विचारना। ___७. पाश्रव-राग द्वेष अज्ञान मिथ्यात्व, अविरति आदि से कर्म पाते हैं ये आश्रव हैं इन्हें त्यागना चाहिए ।
८. संवर–समिति, गुप्ति, यति धर्म, चारित्र आदि से नए कर्म नहीं बंधते हैं।
६. निर्जरा-ज्ञान सहित क्रिया व तप से पहले के कर्मों को खपाना चाहिए ऐसा सोचना चाहिए।
१०. लोकस्वरूप—लोकस्वरूप की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश सोचना।
११. बोधि दुर्लभ-संसार में भटकते हुए आत्मा को सम्यक् ज्ञान का प्राप्त होना दुर्लभ है, यदि वैसा ज्ञान पाया तो भी चारित्र, सर्व विरति धर्म पाना दुर्लभ है।
१२, धर्म दुर्लभ-शुद्ध, देव, गुरु और धर्म को पहचानना