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अध्यात्मक-कल्पद्रुम
विवेचन-हे साधु ! हे यति ! तू कितना निश्चिन्त है । तुझे अपने या अपने परिवार के पेट भरने की चिंता नहीं है, कारण कि तेरे तो परिवार ही नहीं है और तुझे स्वयं के लिए भिक्षा नित्य मिल ही जाती है । तूं व्यापार आदि नहीं करता है, राज्य के कानून को भंग नहीं करता है अतः राज्य भय भी नहीं है । इस तरह से एक गृहस्थी के लिए जो इहलौकिक प्रमुख कष्टकारी भय (आजीविका) व राज्य के हैं उनसे तू दूर है। परलोक के भय से निर्भय होने के लिए भगवान के सिद्धान्तों को तू जानता है एवं उन सिद्धान्तों के ग्रंथ भी तेरे पास रखे हुए हैं यदि तू उन पर चलता है तो परलोक का भय भी नष्ट है अतः तू निश्चिन्त है । यदि इतने पर भी तू चारित्र के लिए प्रयत्न नहीं करता है, एवं विपरीत आचरण करता है तो तेरे पास रहे हुए सब ग्रंथ व अन्य परिग्रह तुझे नरक समुद्र में डुबाने के लिए ही समझे जावेंगे।
यहां जो परिग्रह कहा वह मात्र वस्त्र, पात्र व पुस्तक तक ही सीमित है। पंच महा व्रतधारी होकर जो पैसा या स्त्री का परिग्रह रखते हैं तो वे प्रत्यक्ष दुराचारी ही हैं, परन्तु जो मोटरे, गाड़ी, घोड़ा, बैल रखते हों, खेतीवाड़ी बाग बगीचे रखते हों, छड़ी चंवर मेघाडम्बर धरते हों, किसी के बुलाने पर पधरामणी करवाते हों उनकी बात तो सूरिजी करते ही नहीं अर्थात् उनके लिए तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता कि कैसी दुर्गति होगी। जैन धर्म का विधान बड़ा ही उत्तम है । साधु व श्रावक्र के प्राचार व्यवहार बहुत विचार करके बांधे