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अध्यात्म-कल्पद्रुम
व्याख्याता तरह तरह के लौकिक शास्त्रों में से मनोरंजन पाठ उद्धरित करता है। शब्दों के तोड़ मरोड़ या उच्चारण के नये तरीकों से वह उनका मन खुश करने की कोशिश करता है । कोकशास्त्र या निषिद्धशास्त्र तक पढ़ने का वह साहस करता है। नवीन कथा या दोहे कहता हुवा वह नट की तरह से हिलता डुलता व अंगमरोड़ भी करता है । जनता खुश हो जाती है व श्रोताओं की संख्या बढ़ जाती है। आज के युग में प्रथम तो लोगों के पास समय ही नहीं है; फिर भी ज्यों त्यों समय निकालकर वे सुनने आते हैं एवं धन खर्च करके दूसरे गावों से भी श्रद्धा से गुरू वंदन को आते हैं वहां उनको मात्र कहानी किस्से व गल्प चौपाइयां ही सुनने को मिलती हैं । तत्त्व की बात कुछ भी नहीं कही जाती हो इससे सुनने वालों को और सुनाने वालों को कोई लाभ नहीं होता है। अतः हे साधु ! मात्र मनोरंजन को छोड़कर तत्त्व के उपदेश द्वारा अपना व उनका कल्याण कर । लोकरंजन से लोग तेरी प्रशंसा तो अवश्य करेंगे परंतु इससे तुझे कुछ भी लाभ न होगा। जैसे रामलीला में बने हुए राम को आरती में आए हुए रुपयों की थाली में से मात्र उसके वेतन का एक रुपया ही मिलेगा वैसी ही स्थिति तेरी भी होगी। तू जैसे पाया था वैसे ही चला जावेगा। इस जीवन में कष्ट सहता हुवा, एकाकी जीवन बिताता हुवा, घर बार स्त्री का त्याग करके भी यदि तू इस प्रशंसारूपी शहद लगी तलवार के स्वाद में पड़ जाएगा तो तेरा जीवन निष्फल जाएगा। तू अपना जीवन लोकरंजन की अपेक्षा विद्याअध्ययन में लगा