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अध्यात्म-कल्पद्रुम
आज का जमाना तो बड़ा विचित्र होता जा रहा है । बालकों में धार्मिक संस्कार डाले ही नहीं जाते अतः जव वे युवा हो जाते हैं तब कुल परंपरा से पर्युषणादि में क्रिया तो करने जाते हैं लेकिन वह रूढी पालने मात्र को ही जाते हैं इसका परिणाम यह होता है कि प्रभावना दुबारा तिबारा भी लेते नहीं सकुचाते हैं एवं धर्म श्रवण के बदले हंसी मजाक करते हैं । मन पर अंकुश तो हो ही कैसे सकता है जब कि ज्ञान पढ़ा ही नहीं है, फलतः सायं को प्रतिक्रमण करने के लिए संवत्सरी जैसे महापर्व के दिन, उपवास करके भी लड़ते हैं, गाली गलौच करते हैं और उनका यह टंटा बढ़ते बढ़ते कचहरी तक जाता है। उपासरे में वर्ष में एक ही बार आते हैं और सावंत्सरिक प्रतिक्रमण के लिए ऐसे धर्म को अपमानित करने के काम करते हैं। इस तरह वे नाम मात्र के श्रावक संघ व धर्म पर आफत लाते हैं वे स्वयं संसार समुद्र में गिरते हैं अतः साधु या श्रावक की जो प्रतिज्ञाएं नियत हैं उनको वास्तविक रीति से मानना चाहिए।
लोक सत्कार का हेतु, गुण बिना की गति गुणांस्तवाश्रित्य नमंत्यमी जना, ददत्युपध्यालयभक्ष्यशिष्यकान् । विना गुणान वेषमृविभषिचेत्, ततष्ठकानां तव भाविनी गतिः ८
अर्थ ये लोग तेरे गुणों के कारण तुझे नमस्कार करते हैं उपाधि, उपाश्रय, आहार और शिष्य तुझे देते हैं । अब यदि तूं गुण बिना ही ऋषि (यति-साधु) का भेष धारण करता है तो तेरी गति ठग के जैसी होगी॥ ६॥ वंशस्थविल