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यतिशिक्षा
२७६ विनय करना, पांच प्रकार का स्वाध्याय करना,
ध्यान करना और काउसग करना। चार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) और उनको जन्म देने वाले और उनके साथ रहने वाले हास्य, रति, अरति आदि नोकषाय न करना। उनका स्वरूप सातवें
अध्याय में बताया गया है। ५. बाईस परिषह (भूख, प्यास आदि) एवं देव या मनुष्य
के द्वारा किए जाने वाले अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग समता से सहने चाहिएं, जरा सा भी क्रोध, द्वेष या क्लेश नहीं लाना चाहिए। ऐसे बर्ताव से अपना जीवन समता
मय करना चाहिए। ६. शास्त्रकार ने उपसर्ग के चार मुख्य भेद व उनके १६
उपभेद कहे हैं। १-देवकृत-हास्य से, द्वेष से, विमर्श, (विचार सहन
कर सकता है कि नहीं यह देखने के लिए परीक्षा करना), पृथक् विमात्रा-(धर्म की ईर्षा आदि के लिए वैक्रिय शरीर बनाकर जो उपसर्ग दिया
जाता है)। २-मनुष्यकृत-हास्य से, द्वेष से, विमर्श से, कुशील (काम
विकार उत्पन्न करके या संतान उत्पत्ति के लिए जबरदस्ती प्रयोग करना कि यह ब्रह्मचारी है इससे यदि संतान होगी तो बलवान होगी इस विचार से ब्रह्मचर्य का खंडन कराने की कोशिश करना है)।