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अध्यात्म- कल्पद्रुम
है और वास्तविक सुख ( अव्याबाध सुख ) के ज्ञाता होने से वे आध्यात्मिक सुख में रमण करते रहते हैं ।
(६) ये मुनि संयम गुण रूपो विकसित पुष्पोद्यान में क्रीड़ा करते हैं अर्थात् संयम आदि गुणों वाले होते हैं । उनका नैश्चयिक चारित्र यही है ।
( ७ ) ऊपर लिखे अनुसार खेलते हुए भी वे निरन्तर अनित्य आदि बारह भावना और मैत्री, प्रमोद, करुणा व माध्यस्थ इन चार भावनात्रों को भाते रहते हैं ।
यह आदर्श मात्र है । ऐसे गुणों से विशिष्ट जीवन वाले पुण्यात्मा स्वयं संसार तर गए हैं, तरते हैं और अन्य को तारने में अनुकरणीय बनते हैं। वैसे महात्माओं को हम नमस्कार कर उनके अनुकरण की भावना रखते हैं ।
साधु के वेश मात्र से ही मोम नहीं मिलता है
स्वाध्यायमाधित्ससिनो प्रमादः, शुद्धा न गुप्तीः समितीश्च धत्से । तपो द्विधा नार्जसि देहमोहादल्पेऽहि हेतौ दधसे कषायान् ॥ २ ॥ परीषहान्नो सहसे न चोपसर्गान्न शीलांगधरोऽपि चासि । तन्मोक्ष्यमाणोऽपि भवाब्धिपारं, मुने कथं यास्यसि वेषमात्रात् । युग्मम् ।। ३ ।।
- हे मुनि ! तूं विकथा आदि प्रमाद के कारण स्वाध्याय ( सज्झाय - ध्यान) करने की इच्छा नहीं रखता है; विषयादि प्रमाद से समिति और गुप्ति प्राप्त नहीं करता है; शरीर के मोह से दोनों प्रकार के तप नहीं करता है; तुच्छ कारण से