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अध्यात्म-कल्पद्रुम जड़ का बदलना नष्ट होकर फिर बनना वैसे ही आत्मा का धर्म सत् चित्त आनंद है । शास्त्रों की परिभाषा में कहें तो, धारयतीति धर्मः (नरक निगोद आदि) अधोगति में पड़ते हुए जीव को जो धारण करता है (बचाता है--स्थिर रखता है) वही धर्म है। श्री वीतराग प्रणीत वचनानुसार मन वचन काया का शुद्ध व्यापार ही धर्म है । वैसे शुद्ध धर्म को हे मूर्ख तू प्रमाद, मान, माया, मात्सर्य आदि के द्वारा क्यों मलीन करता है ? जैसे विपरीत स्वभाव वाले पदार्थ से मिश्रित प्रौषधि व्याधि का नाश नहीं कर सकती है वैसे ही दुर्गुणों से मिला हुआ धर्म भी आत्मा का हित नहीं कर सकता है । धर्म का अर्थ कर्तव्य है। अपने कर्तव्य को पूरा पालना ही धर्म है। सत्य बोलना, चोरी न करना, किसी को नहीं ठगना यह कर्त्तव्य है । यदि हम वैसा करते हैं तो किसी पर एहसान नहीं करते हैं यह तो हमारा फर्ज़ है क्योंकि आत्मा का स्वभाव ही यही है । पूजा, माला, पाठ, सामायिक आदि करना भी कर्तव्य ही है, आत्मा को अधोगति में से बचाने के लिए ये आवश्यक हैं । यदि ये सब धार्मिक क्रियाएं तो करते हों लेकिन जीवन व्यवहार में झूठ, कपट या ठग वृत्ति करते हों, किसो के विश्वास व भोलेपन का दुरुपयोग करते हों तो हमारे सब धार्मिक काम निरर्थक हैं । कोई यदि ये क्रियाएं न भी करता हो लेकिन जीवन में नीति से, सत्यता से वरतता हो तो वह अधिक उत्तम है। बक् भक्ति से आत्मा का कुछ भी लाभ नहीं होता है ।