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___ धर्मशुद्धि
"शुद्ध" धर्म करने की आवश्यकता सृजन्ति के के न बहिर्मुखा जनाः, प्रमादमात्सर्यकुबोधविप्लुताः । दानादिधर्माणि मलीमसान्यमून्युपेक्ष्य शुद्धं सुकृतं चराण्वपि ॥८॥
अर्थ-प्रमाद, मत्सर और मिथ्यात्व से घिरे हुए कितने ही सामान्य मनुष्य दान आदि धर्म करते हैं, परंतु ये धर्म मलिन हैं, अतः उनकी उपेक्षा करके शुद्ध सुकृत्य अणु जितना भी कर ॥ ८ ॥
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वंशस्थवृत्तं विवेचन–शुद्ध धर्म एक अणु जितना भी श्रेष्ठ बताया है जब कि प्रमाद ; (मद्य, विषय, कषाय, विकथा, निद्रा) मत्सर; (दूसरों की उन्नति पर ईर्षा) और मिथ्यात्व (दृष्टि रागादि) से किये गए, दान, शील, तप आदि सब निरर्थक कहे हैं । निराभिमान से, निष्काम भाव से, दिखावे या ढोंग रहित केवल प्रात्म कल्याण के लिए किया हुवा थोड़ा सा भी धर्म श्रेष्ठ होता है जब कि ढोल बजवाते हुए, नारे लगवाते हुए, कुंकुमपत्री व अखबारों में नाम छपवाते हुए व जनता की पूजा की इच्छा रखते हुए किए गए बड़े बड़े तप भी केवल अभिमान के लिए होने से निरर्थक हैं। अतः दान, शील, तप, भावना आदि गुप्त रूप से ही श्रेष्ठ होते हैं। .
प्रशंसा रहित सुकृत की विशिष्टता आच्छादितानि सुकृतानि यथा दधते, सौभाग्यमत्र न तथा प्रकटीकृतानि । बीडानताननसरोजसरोजनेत्रा, वक्षःस्थलानि कलितानि यथा दुकूलैः ॥ ६ ॥