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धर्मशुद्धि अर्थ भाव और उपयोग के बिना की जाने वाली सब आवश्यक क्रियाओं से तुझे मात्र शरीर-कष्ट प्राप्त होगा परन्तु तू इनका उत्तम फल नहीं पा सकेगा ॥ १४ ॥ आर्या
- विवेचन—भाव का अर्थ है चित्त का उत्साह (वीर्योल्लास) और उपयोग का अर्थ है सावधानता (तन्मयपन), जैसे कि आवश्यक क्रिया में सूत्र, अर्थ व्यंजन, ह्रस्व दीर्घ के उच्चारण आदि का ध्यान रखना। अतः भाव एवं उपयोग बिना की क्रिया करना यह मात्र काय क्लेश है और उसका फल भी शून्यवत है । सुक्त मुक्तावली में कहा है कि:
हाह॥
मनविण मिलवो ज्यु, चाववो दंतहीणे; गुरु विण भजवो ज्यु, जीमवो ज्युं अलूणे । जसविण बहुजीवी, जीवते ज्युं न सोहे, तिम धरम न सोहे, भावना जो न होहे ॥ अतः स्पष्ट है कि भाव विना की धार्मिक क्रिया एक दम निरर्थक है । धर्म एक ही तरह की भावना से नहीं होता है कारण कि पहले भी धर्म करने वालों ने भिन्न भिन्न कारणों से धर्म किया है जैसे कि:-नागिला को तजने वाले भवदत्त ने लज्जा से, मेतार्य मुनि को मारने वाले सोनी ने भय से, चंडरुद्राचार्य के शिष्य ने हास्य से, स्थूलिभद्र पर मात्सर्य करने वाले सिंह गुफावासी साधु ने मात्सर्य से, सुहस्तीसूरि द्वारा उपदिष्ट द्रुमक ने लोभ से, बाहुबली ने हठ से, दशार्णभद्र