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अध्यात्म-कल्पद्रुम
स्वयं डूबने और अन्य की डुबाने वाले कुगुरु
समाश्रितस्तारकबुद्धितो यो, यस्यास्त्यहो मज्जयिता स एव । नोघं तरीता विषमं कथं स तथैव जंतुः कुगुरोर्भवाब्धिम् ||३||
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अर्थ - यह पुरुष तारने में समर्थ है ऐसी बुद्धि से जिसका आश्रय लिया हो, परंतु उस श्राश्रयकर्ता को डुबाने में आश्रयदाता ही निमित्त हो तो वह बिचारा श्राश्रयकर्ता प्राणी इस विषम प्रवाह को कैसे तर सकेगा ? इसी प्रकार से इस प्राणी को संसार समुद्र से कुगुरू किस तरह तार सकेगा ? उपजाति
विवेचन - जिस कप्तान के भरोसे जहाज में बैठे हों यदि वही कप्तान स्वयं ही जहाज में छेदकर जहाज को डुबाने का प्रयत्न करता हो तब तो उस पार जाने की संभावना भी कैसे की जा सकती है, वैसे ही जिसको गुरु मानकर मोक्ष की अभिलाषा से अपना जीवन सौंप दिया हो यदि वह स्वयं ही उस कप्तान की तरह मोह मदिरा पान कर जीवन जहाज को नष्ट करने वाला हो अर्थात अनाचार दुराचार कर शिष्यों को भी वैसा करने को सिखाता हो तो मोक्ष की संभावना तो दूर रही वरन पुनः मानव भव पाना भी दुर्लभ हो जाएगा । जो गुरु नाम धराकर छत्र, चंवर, मेघाडंबर धारण कर दुनिया के सामनें पूज्य बनते हों लेकिन छुपे छुपे कुत्सित कार्य का विचार करते हों उनसे मोक्ष दिलाने की क्या आशा रखी जाय, अलबत्ता नरक के मार्ग