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गुरुशुद्धि
२५६ ही नहीं अत: लोग उनको देव परमेश्वर गिनने लगते हैं उनके प्रत्येक शब्द को देववाणी समझते हैं यहां तक कि वे चलते हैं तब वे आगे आगे मार्ग शोधन करते हैं, वे बोलते हैं तो खमा खमा पुकारते हैं, वे जिस तरह से कहते हैं वे वैसा उसी तरह से वे करते हैं। भक्तों को उनके दोष भी गुण प्रतीत होते हैं । यह वाड़े बंधी बढ़ती जाती है, वे साधारण, आडंबरी ढोंगी गुरु बड़े प्राचार्य कहलाते हैं । जनता भेड़ चाल से अनुकरण करती है चाहे वे दया, दान, तप का रूप कुछ और ही बताते हों चाहे तीर्थकरों से विरुद्ध ही बोलते हों, वहां परवाह किसको है। वे सोचते हैं कि बस हमारे गुरु महाराज आचार्य श्री ने जो फरमाया है वही सत्य है, उनकी लिखी पुस्तकें ही आगम हैं वे जो कुछ कहते या करते हैं वही सत्य है बाकी सब मिथ्यात्व है। इस तरह से दृष्टि राग से हम सब डूबते हैं । शास्त्रकारों ने “गच्छाचार पयन्ना" में कहा है कि:-अगीतार्थ के वचन से अमृत भी न पियो जब कि गीतार्थ के वचन से विष भी पीलो । ज्ञानी गुरु की बात प्रत्यक्ष में विपरीत प्रतीत होती हुई भी कल्याणकारी होती है जब कि ढोंगी व अज्ञानी गुरु की बात प्रत्यक्ष हितकारी दीखती हुई भी हानिकर तथा नरक गामी होती है अतः दृष्टि राग को छोड़कर शास्त्रोक्त विधि से गुरु की पहचान कर उनका अनुसरण करने से ही मोक्ष मिल सकता है । संसारी जीव मोहनीय कर्म से राग करता ही है, राग उससे छूटता नहीं है यदि राग करना ही हो तो उपाध्यायजी यशोविजयजी के लिखने के अनुसार मुनि पर