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धर्मशुद्धि
२४६ हीरा माणक मोती आदि रत्न, पारा, अभ्रक आदि भस्म कम मात्रा में ही गुणकारी व कीमती होते हैं यदि वे शुद्ध हों तो । एक तोला लोहा व एक तोला रत्न यद्यपि वजन में बराबर होते हैं तो भी मूल्य में अनेक गुणा अंतर हैं । ठीक वैसे ही बिना आत्मा की साक्षी से, भाव अशुद्धि से, चित्त की अस्थिरता से की गई तमाम धार्मिक क्रियाएं व तपस्याएं उत्तम फल को नहीं देती हैं। बिना .सत्त्व या तत्त्व से की गई अनेक क्रियाओं की अपेक्षा एक ही क्रिया जो शुद्ध रूप से, सच्चे भाव से, केवल मोक्ष की अभिलाषा से, बिना दिखावे से या यश की भूख रहित की गई हो वह अनेक गुणे फल को देने वाली होती है अर्थात मोक्ष की तरफ ले जाने वाली होती है। कितने ही तपस्वी श्रावक व साधु अनेक तप करने पर भी शांत चित्त नहीं होते हैं । जीवन में उग्रता, माया, छल कपट, प्रमाद, असहिष्णुता, दुराग्रह, प्रपंच, परावलम्ब व परिग्रह के कारण जैन धर्म को बदनाम करते हैं। स्व का व पर का भव बिगाड़ते हैं। जो लोग केवल यश व दिखावे के लिए क्रियाएं व तप करते कराते हैं उन्हें निश्चित मानना चाहिए कि वे चाहे दूसरों को अंधेरे में रखते हों लेकिन अपनी आत्मा को व कालदेव को या कर्म को अंधेरे में नहीं रख सकेंगे। उनके गुप्त पाप, गुप्त रूप से ही उन्हें सजा देंगे । अतः शुद्ध पुण्य करो।
उक्त अर्थ के लिए दृष्टांत दीपो यथाल्पोऽपि तमांसि हन्ति, लवोऽपि रोगान् हरते सुधायाः । तृण्यां दहत्याशु कणोऽपि चाग्नेर्धर्मस्य लेशोऽप्यमलस्तथांहः ।।१३।।