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अध्यात्म-कल्पद्रुम
गौतमस्वामी, सिद्धसेन दिवाकर ने अहंकार से, नमिविनमि ने विनय से, कार्तिक सेठ ने दुःख से ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती ने शृंगार से, आमीट तथा आर्य रक्षित आदि ने कीर्ति से, गौतमस्वामी द्वारा प्रतिबोधित १५०३ साधुओं ने कौतुक से, इलापुत्र ने विस्मय से, अभयकुमार व आर्द्र कुमार ने व्यवहार से, भरत चक्रवर्ती व चंद्रावतंस ने भाव से, कीर्तिधर व सुकोशल ने कुलाचार से और जंबुस्वामी, धनगिरि, वज्रस्वामी, प्रसन्नचंद्र तथा चिलाती पुत्र ने वैराग्य से धर्म किया।
___ सभी तरह से किया हुवा धर्म महालाभकारी होता है । जो कुछ करना है उसे विचार कर करो, भाव से करो तभी सफलता मिलेगी किसी भी क्रिया का निषेध नहीं है मात्र निषेध तो इसका है, कि हाथ, पैर मुंह आदि अपना काम कर रहे हैं लेकिन मन और कहीं जा रहा है ऐसी भाव शून्य दशा से की जाने वाली क्रिया निरर्थक है।
शास्त्रकार ने तीन बातों पर विशेष ध्यान दिया है:
(१) धर्म शुद्धि की आवश्यकता-मात्सर्य, अभिमान या यश लोलुपता से रहित होकर शुभभावना से व मोक्षाभिलाषा से धर्म करना चाहिए।
(२) स्वगुण प्रशंसा और मत्सर-धर्म शुद्धि में ये दोनों बाधक हैं, ये दोनों स्वादिष्ट विष की तरह घातक हैं।