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धर्मशुद्धि होती है वह चाहे किसी में हों। कीमत रुपये की हो रही है न कि रुपये वाले की वैसे ही प्रशंसा गुणों की हो रही है न कि गुणवान को ; निंदा दोषों की हो रही है न कि दोषी की। जो यह जानता है व वैसा ही आचरण करता है वही वास्तव में विद्वान हैं । यहां तात्पर्य यह है कि शत्रु मित्र पर सम भाव रहना व तात्विक दृष्टि से जो जैसा है उसे वैसा ही समझना, पात्रता का भेद बीच में न लाना तभी मनुष्य न्यायशील व सत्यान्वेषी रह सकता है।
परगुण प्रशंसा स्तवैर्यथा स्वस्य विगर्हणश्च, प्रमोदतापौ भजसे तथा चेत् । इमौ परेषामपि तैश्चतुर्व प्युदासतां वासि ततोऽर्थवेदी ॥६॥ ____ अर्थ-जैसे तुझे अपनी प्रशंसा और निंदा से क्रमशः आनंद व खेद होता है वैसे ही पर की प्रशंसा और निंदा से आनंद व खेद होता हो अथवा इन चारों दशाओं में उदासीनता (माध्यस्थ भाव) रखता हो तो तू सच्चे अर्थ को जानने वाला है ॥ ६ ॥
उपेन्द्रवज्रा विवेचन-उदासीन वृत्ति का अर्थ यह है कि जानते हुए, समझते हुए भी उपेक्षा वृत्ति रखना, इसका अर्थ बेदरकारी या लापरवाही नहीं है। स्वगुण प्रशंसा; स्वदोष निंदा; परगुण प्रशंसा; परदोष निंदा; इन चारों भावों में मध्यस्थ भाव आ जाता है तो अच्छा है। अपनी प्रशंसा सुनकर न फूलना; निंदा सुनकर क्रोध न करना ; पर के गुण की प्रशंसा