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अध्यात्म-कल्पद्रुम
गुण एक पद और बढ़ा। जीवन में प्रति दिन ऐसे अनेक प्रसंग आते हैं जब कि मनुष्य इस बात का अनुभव करता है ।
शत्रु के गुणों की प्रशंसा प्रमोदसे स्वस्य यथान्यनिर्मितः, स्तवैस्तथा चेत्प्रतिपंथिनामपि । विगर्हणैः स्वस्य यथोपतप्यसे, तथा रिपुणामपि चेत्ततोसि वित् ।५ ___ अर्थ दूसरे मनुष्य के द्वारा की गई अपनी प्रशंसा सुनकर जिस तरह से तू प्रसन्न होता है, वैसे ही प्रसन्नता यदि शत्रु की प्रशंसा सुनकर होती हो एवं जैसे स्वयं की निंदा सुनकर तुझे दुःख होता है वैसे ही शत्रु की निंदा सुनकर तुझे दुःख होता हो तो वास्तव में तू विद्वान है ॥ ५॥ वंशस्थ
विवेचन–प्रशंशा सुनकर प्रमोद व निंदा सुनकर खेद होता है परन्तु किसकी ? अपनी ही ! यदि दूसरे की प्रशंसा होतो हो और अपनी निंदा होती हो तो परिणाम विपरीत होता है, अर्थात् दुख होता है। होना तो यह चाहिए कि जिसमें गुण हैं उसकी प्रशंसा व जिसमें दोष हैं उसकी निंदा; पात्र कोई भी हो, चाहे हम हों या हमारे मित्र या हमारे शत्रु । यह तो विपरीत वस्तु है कि हमारी या हमारे स्नेही की प्रशंसा होती हो चाहे वह झूठी ही हो, हम प्रसन्न हो जावें और जब शत्रु की प्रशंसा होती हो तो हम नाराज हो जावें । रुपया जिसके पास है उसकी कीमत होती है वह चाहे राजा के पास हो या भिखारी के पास, चाहे मित्र के पास हो चाहे शत्रु के पास । वैसे ही प्रशंसा केवल गुणों को होती है वह चाहे किसी में हो और निंदा केवल दोषों को