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अध्यात्म-कल्पद्रुम या काम वाले की संगति; श्लाघाथिता-अपनी बड़ाई सुनने की इच्छा । ये सब चीजें आत्मा में मैल रूप व भव में भटकाने वाली हैं । इनसे दूर रहा जाय तो आत्मा को परम शांति मिलती है व सच्चा सुख व ध्रुवपद मिलता है।
परगुण प्रशंसा यथा तवेष्टा स्वगुणप्रशंसा, तथा परेषामिति मत्सरोज्झी । तेषामिमां संतनु यल्लभेथास्तां नेष्टदानादि विनेष्टलाभः ॥३।। ___ अर्थ-जिस प्रकार से तुझे अपने गुणों की प्रशंसा अच्छी लगती है, वैसे ही दूसरों को भी लगतो है, अतः मात्सर्य छोड़ कर उनके गुणों की प्रशंसा अच्छी तरह से करना शुरू करं, कारण कि प्रिय वस्तु दिए बिना प्रिय वस्तु मिलती नहीं है ॥ ३ ॥
उपजाति . विवेचन—मानव स्वभाव ही ऐसा है कि हरेक को अपनी प्रशंसा सुनने में मजा आता है चाहे वह झूठी ही क्यों न हो जब कि दूसरों की निंदा करने में आनंद आता है जब कि वह निराधार ही क्यों न हो। दूसरों के गुणों को छुपाने को और अपने अल्प गुणों को बहुत बड़ा बनाने का साधारण रिवाज सा हो गया है । यही अधोगति का मूल है। वास्तव में होना तो यह चाहिए कि परगुणों की प्रशंसा और आत्मगुणों का गोपन (छुपाना) परन्तु होता है विपरीत । यदि तुझे अपने गुणों की प्रशंसा सुनने की अभिलाषा है तो दूसरों के गुणों की प्रशंसा कर जिससे तुझे भी अपने गुणों को प्रशंसा सुनने का समय आएगा। जो तू देगा वही मिलेगा।